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भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहब फाल्के जब सन् 1913 में अपनी फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ लेकर रुपहले परदे पर आए थे तब किसी ने यह नहीं सोचा था कि इस युवक ने भारत की अगली पीढ़ी को फिल्मों बनाने और नए-नए प्रयोग करने का मौका दे दिया. यह बात प्रायोगिक रूप में सन 1931 में फिल्म ‘आलम आरा’ जो पहली बोलती हुई फिल्म थी, के तौर पर सामने आई.
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नीचे पढ़िए आलम आरा फिल्म से जुड़े रोचक और मजेदार तथ्य जिसने फिल्मी दुनिया को एक नए उद्योग के रूप में ढाला तथा मनोरंजन का नया क्षितिज कायम किया:
3 मई, 1913 को पहली मूक फीचर फिल्म राजा हरिश्चंद्र प्रदर्शित होने के काफी वर्षों बाद 14 मार्च, 1931 को मुंबई के मेजेस्टिक सिनेमा में देश की पहली बोलती फिल्म आलमआरा रिलीज हुई. अर्देशिर ईरानी की कंपनी इंपीरियल मूवीटोन के बैनर तले रिलीज हुई इस फिल्म से जुड़े विज्ञापनों में यह भी दर्शाया जाता था कि यह संपूर्ण बोलती, नाच-गाने के दृश्यों से भरपूर फिल्म है. इस फिल्म में मास्टर विट्ठल, जुबैदा और पृथ्वीराज कपूर मुख्य भूमिका में नजर आए थे.
आलमआरा जोसेफ डेविड जिन्हें प्यार से लोग जोसब दादा कहते थे, ने लिखी थी।. अनेक प्रतिभाओं के धनी जोसेफ दादा हिंदी, उर्दू, गुजराती और मराठी में लिख सकते थे. उन्हें ग्रीक, यहूदी, मिस्त्र, ईरानी, चीनी और भारतीय साहित्य की भी अच्छी समझ थी. जोसेफ दादा ने आलमआरा नाम का एक नाटक लिखा था. अर्देशिर ईरानी ने जब एक बोलती फिल्म बनाने की सोची तो उन्होंने भी आलमआरा को ही चुना. जोसेफ दादा ने जब अपने नाटक का फिल्म रूपांतर किया तो उन्होंने इस बात का बहुत ध्यान रखा कि यह फिल्म हर वर्ग के दर्शकों को आसानी से समझ आ सके. कल्पना प्रधान होने के बावजूद इस फिल्म की अवधारणा लोगों को आसानी से समझ आ गई.
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अर्देशिर ईरानी यह जानते थे कि कोलकाता में भी एक बोलती फिल्म बनाने की तैयारी चल रही है इसीलिए उन्होंने अपनी फिल्म आलमआरा बड़े गुपचुप तरीके से बनाई. मई 1927 को मुंबई में पहली बार बोलती फिल्म का प्रदर्शन किया गया गया. रॉयल ओपेरा हाउस में प्रदर्शित इस फिल्म को देखने के लिए काफी भीड़ उमड़ी थी. मुंबई के सभी सिनेमाघरों में बोलती फिल्मों की बढ़ती मांग को देखकर अर्देशिर ईरानी ने बोलती फिल्म बनाने का फैसला किया. आलमआरा से पहले जितनी भी फिल्में प्रदर्शित होती थीं मूक होने के कारण उनमें संवाद लेखक, गीतकार और संगीतकार की जरूरत नहीं पड़ती थी. यहां तक कि किसी को यह भी नहीं मालूम होता था कि गीत-संगीत और संवादों से भरी फिल्में होती कैसी हैं. उस समय प्लेबैक गायकों की अवधारणा प्रचलित नहीं थी इसीलिए अभिनेताओं को गायकी भी करनी पड़ती थी. हां, फिल्म में माइक न दिखे इसके लिए बहुत सावधानी बरतनी पड़ती थी. जब पर्दे पर दर्शकों ने कलाकारों को बोलते और गाते देखा तो वह बहुत उत्साहित हुए. दर्शकों की भीड़ को संभालने के लिए पुलिस को काफी मशक्कत करनी पड़ी.
पिछले सौ वर्षों में कामयाबी की ऊंचाइयों तक पहुंची भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के लिए खेदजनक बात यह है कि आज हमारे पास पहली बोलती फिल्म आलमआरा किसी भी रूप में उपलब्ध नहीं है. न तो किसी ने इस फिल्म का प्रिंट बचा कर रखा और न कभी किसी ने इस फिल्म का दस्तावेजीकरण किया था. आज न तो आलमआरा की धुन किसी को याद है और न गीत. बड़ी मुश्किल से संगीतकार नौशाद दो पंक्तियां सुना पाते हैं, दे दे खुदा के नाम पर प्यारे ताकत हो गर देने की, कुछ चाहे अगर तो मांग ले मुझसे, हिम्मत हो गर लेने की. इस गीत में केवल तबला, हारमोनियम और वॉयलिन का ही प्रयोग हुआ था. फिल्म का संगीत फिरोजशाह मिस्त्री और बेहराम ईरानी ने तैयार किया था. डब्ल्यू. एम. खान ने फकीर की भूमिका निभाते हुए यह गीत स्वयं गाया था. पूना स्थित फिल्म पुरातत्व विभाग आलमआरा के अवशेषों की खोज में लगा है, पर किसी को फिल्म का एक भी फ्रेम मिलने की उम्मीद नहीं है.
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