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कहीं दूर जब दिन ढल जाए,
सांझ की दुल्हन बदन चुराए चुपके से आए…..
मुकेश की आवाज में आनंद फिल्म का यह गीत शायद ही किसी को याद ना हो. फिल्मों का वो दौर भी अजीब था. ना तो भागता-दौड़ता संगीत था और ना ही तेज आवाज, अगर कुछ था तो बस शब्द और वो भी ऐसे जो सुनने वालों की रूह में समा जाए. आवाज के जादूगर और संगीत के महारथियों से चकाचौंध वो समय गीतों के मर्म को समझने वाला था. नौशाद, आर.डी. बर्मन(R.D.Burman), एस.डी. बर्मन (S.D.Burman) , ओ.पी. नायर (O.P.Nayar) जैसे संगीतज्ञों का काल हिंदी फिल्मों का शायद सबसे खूबसूरत समय था. कोई अपनी मदहोश कर देने वाली आवाज से श्रोताओं के दिल में बस जाता था तो कोई अपने लाजवाब संगीत की बदौलत अपने लिए एक विशिष्ट स्थान बना लेता था.
हिन्दी फिल्में बिना संगीत के बहुत ऊबाऊ हो जाती हैं यही वजह है कि बॉलिवुड में संगीतकारों और गायकों को एक बहुत बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका से नवाजा गया है. यूं तो समय के साथ-साथ हिन्दी फिल्मों में संगीत के क्षेत्र को एक नया आयाम मिलता गया है लेकिन कुछ लोकप्रिय संगीतज्ञों के ऊपर जो जिम्मेदारी सौंपी गई थी उसे उन्होंने बखूबी निभाया है.
लिव इन पार्टनर की तलाश में हैं रणबीर कपूर(Ranbeer kapoor) ….!!
धीमी-धीमी और मेलोडियस धुनों के ऊपर लाजवाब आवाज का साथ श्रोताओं के लिए बेहद सुखद अहसास होता था. आपको शायद पता न हो लेकिन 40 के दशक में जो अदाकार पर्दे पर दिखाई देते थे वह अपने लिए स्वयं गाने भी गाते थे. उस समय प्लेबैक सिंगिंग की सुविधा नहीं थी इसीलिए उन्हें सीन शूट करने के साथ-साथ गाना भी गाना पड़ता था.
लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, नौशाद, किशोर कुमार(Kishore Kumar) उस समय के बड़े और बेहद प्रतिष्ठित नाम हैं, जिन्होंने ना सिर्फ दर्शकों को लुभाया बल्कि उन पर गहरी छाप भी छोड़ी.
फिर समय बदला और बॉलिवुड में संगीतकारों के प्रवेश का सिलसिला शुरू हुआ. लेकिन इसमें भी एक विडंबना थी. हिन्दी फिल्मों में संगीतकार या गायक बनने के इच्छुक लोगों को सबसे पहले शास्त्रीय संगीत की ट्रेनिंग लेनी पड़ती थी और उसके बाद ही वह हिन्दी फिल्मों में अपने लिए कोई जगह तलाशते थे.
समय बदला और सॉफ्ट संगीत के स्थान पर आयटम सॉंग का चलन बढ़ने लगा. फिल्म में एक आयटम सॉंग होना उसकी टीआरपी को और बढ़ा देता था और दर्शक कैबरे या आयटम सॉंग देखने के लिए थियेटर का रुख करने लगे. आयटम सॉंग हो या कैबरे हेलन, बिंदू और अरुणा इरानी जैसी डांसर्स का कोई मुकाबला नहीं था. फिल्मों में कैबरे का दौर बहुत लंबा चला. ऐसा कहा जाए कि 60 और 70 में प्रदर्शित ज्यादातर फिल्मों में कैबरे का महत्व बहुत ज्यादा था तो यह पूरी तरह गलत भी नहीं होगा.
सनी लियोन (sunny leone) की राह पर चल पड़ी पूनम पाण्डे
70 के दशक में जहां कैबरे ने धूम मचाई थी वहीं 80 तक पहुंचते-पहुंचते डिस्को को पहचान मिलने लगी. यह वह समय था जब मंद आवाज और धीमी धुनों वाले गीतों का चलन समाप्त होता जा रहा था और आई एम ए डिस्को डांसर और डिस्को 82 जैसे गाने उसकी जगह लेने लगे थे. पाश्चात्य देशों में डिस्को बहुत पुरानी विधा है लेकिन भारत में इसे स्थापित होने में समय लगा. शुरुआती आलोचनाओं के बाद स्टेज पर तेज आवाज वाले गाने और डिस्को को स्वीकार्यता मिलने लगी. मिथुन चक्रवर्ती और ऋषि कपूर यह दो नाम ऐसे हैं जिन्होंने भारतीय लोगों के लिए अजनबी इस विधा को लोकप्रियता दिलवाई और बप्पी लहरी, किशोर कुमार, अनु मलिक आदि ने गीत-संगीत के क्षेत्र को एक नया आयाम दिया.
90 का दशक आते-आते फिल्म निर्माताओं और संगीतकारों ने संगीत के क्षेत्र में विभिन्न तरह के प्रयोग करने शुरू कर दिए. लेकिन सभी प्रयोगों में एक बात समान थी कि अधिकांश गीत युवाओं को ध्यान में रखकर बनाए जाते थे. रोमांटिक हो या फिर कोई तड़कता-भड़कता गीत सभी का टार्गेट युवा ही रहते थे.
2000 आते-आते तो जैसे गीत-संगीत के क्षेत्र में परिवर्तन की बयार सी आ गई. धुनों में पाश्चात्य तरीके अपनाए गए, गायकों की आवाजों के साथ तकनीकी छेड़छाड़ की गई. यह प्रयोग कभी-कभी सफल हुए तो कभी-कभी इतने बेसुरे बने कि उन्होंने दर्शकों को थियेटर तक ही नहीं जाने दिया.
सुनिधि चौहान (Sunidhi Chauhan) और ममता भारद्वाज की आवाजों ने ऐसा कहर बरपाया कि फिल्मों में या तो कभी मुन्नी बदनाम होने लगी तो कभी शीला की जवानी जैसे गीत बॉलिवुड प्रशंसकों के जुबान पर घर करने लगे. पहले फिल्मों में आयटम गर्ल्स अलग हुआ करती थीं लेकिन अब तो जैसे आयटम सॉंग करने के लिए बड़ी-बड़ी हिरोइनें कतार में नजर आती हैं. अनारकली डिस्को चली, जलेबी बाई, मुन्नी बदनाम हुई, शीला की जवानी से गुजरता हुआ यह सिलसिला अब हलकट जवानी तक आ पहुंचा है. संगीत के क्षेत्र में और क्या-क्या बदलाव आते हैं यह तो वक्त ही बेहतर बताएगा.
अब आई बिग बी की जींस की बारी …
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